जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
मध्यप्रदेश में सरकारी भर्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27% आरक्षण लागू करने का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियों के साथ सुर्खियों में है। मंगलवार को सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने एमपी सरकार से सवाल किया कि आखिर 13% आरक्षित पद पिछले छह साल से क्यों होल्ड पर हैं और इस दौरान सरकार ने इस दिशा में क्या ठोस कदम उठाए हैं। कोर्ट ने यहां तक पूछ लिया—“मध्यप्रदेश सरकार सो रही है क्या?”
यह मामला 2019 में ओबीसी आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% करने के सरकारी फैसले से जुड़ा है। उस समय विधानसभा में विधेयक पारित कर सरकार ने इसे लागू करने का आदेश जारी किया, लेकिन इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर हो गईं। हाईकोर्ट ने 4 मई 2022 को अंतरिम आदेश में ओबीसी आरक्षण की सीमा 14% तय करते हुए शेष 13% पदों पर रोक लगा दी। इस आदेश को बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन फिलहाल यह रोक बरकरार है। नतीजतन, राज्य में 2019 से अब तक होने वाली सभी सरकारी भर्तियों में 13% पद होल्ड पर रखे जा रहे हैं।
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी और ओबीसी महासभा के अधिवक्ता वरुण ठाकुर ने कहा कि यह मामला केवल संवैधानिक अधिकारों का नहीं, बल्कि लाखों युवाओं के भविष्य का है। आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में 35 से अधिक भर्ती परीक्षाओं में लगभग 8 लाख उम्मीदवार प्रभावित हुए हैं, जिनमें करीब 3.2 लाख चयनित अभ्यर्थियों के परिणाम होल्ड हैं। सरकार की रिपोर्ट में भी माना गया है कि 29 हजार नियुक्तियां ही हो पाई हैं, जबकि 1.04 लाख पद अब भी खाली हैं।
राज्य सरकार ने अपनी दलील में कहा कि वह भी ओबीसी को 27% आरक्षण देने के पक्ष में है और 13% पदों को अनहोल्ड करने की इच्छुक है। सरकार ने छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां 58% कुल आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रूप से मान्यता दी है, ऐसे में मध्यप्रदेश को भी इसी तरह की राहत मिलनी चाहिए। हालांकि, विपक्षी पक्ष ने तर्क दिया कि एमपी और छत्तीसगढ़ के मामलों में अंतर है—छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजाति की आबादी अधिक होने के कारण वहां की आरक्षण संरचना अलग है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अति महत्वपूर्ण मानते हुए 23 सितंबर को टॉप ऑफ द बोर्ड पर सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है। उस दिन 13% होल्ड पदों से जुड़ी सभी याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई होगी। कोर्ट ने मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव को एफिडेविट दाखिल करने का निर्देश दिया है, जिसमें स्पष्ट किया जाए कि इन पदों पर नियुक्तियों में व्यावहारिक बाधाएं क्या हैं और अब तक इन्हें भरने के लिए क्या प्रयास किए गए हैं।
गौरतलब है कि सरकार का दावा है कि राज्य की लगभग 48% आबादी ओबीसी समुदाय से आती है, लेकिन इस आंकड़े के समर्थन में अभी तक पुख्ता जनगणना डेटा उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि 2019 और 2022 में हाईकोर्ट ने इसी आधार पर आरक्षण के क्रियान्वयन पर रोक लगाई थी। ओबीसी संगठनों की मांग है कि सामाजिक और जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर इस आरक्षण को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए, ताकि इसे न्यायिक समीक्षा से छूट मिल सके।
अब सभी की नजरें 23 सितंबर की सुनवाई पर हैं, जहां यह तय हो सकता है कि मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण 27% लागू होगा या 14% की सीमा बनी रहेगी। इस फैसले का असर न केवल लाखों अभ्यर्थियों के भविष्य पर पड़ेगा, बल्कि प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों पर भी गहरा होगा।