जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
देश की न्याय व्यवस्था और संसद दोनों ही इन दिनों एक ऐसे संवेदनशील और सनसनीखेज मामले से जूझ रहे हैं, जिसने पूरे सिस्टम की पारदर्शिता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। मामला है इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से बरामद हुए संदिग्ध नकदी के ढेर का — जिसने न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को झकझोर दिया है, बल्कि संसद तक में हलचल मचा दी है।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से खुद हटे चीफ जस्टिस
19 जुलाई को जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट और उनके खिलाफ महाभियोग की सिफारिश को रद्द करने की मांग की। लेकिन 24 जुलाई की सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस बीआर गवई ने खुद को इस मामले की सुनवाई से अलग कर लिया। उनका कहना था, “मैं पहले भी इस प्रक्रिया का हिस्सा रह चुका हूं, इसलिए अब सुनवाई में शामिल होना उचित नहीं होगा।”
कपिल सिब्बल ने रखा पक्ष, नई बेंच गठित होगी
जस्टिस वर्मा की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल पेश हुए। उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक कानूनी विवाद नहीं है, बल्कि संवैधानिक प्रश्न है। उन्होंने अदालत से जल्द नई बेंच गठित करने की अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिए हैं कि जल्द ही नई बेंच बनाई जाएगी जो इस याचिका पर सुनवाई करेगी।
संसद में भी उठा मामला, महाभियोग प्रस्ताव की तैयारी
उधर, संसद में जस्टिस वर्मा को हटाने की प्रक्रिया भी तेजी से आगे बढ़ रही है। 21 जुलाई को लोकसभा में 152 सांसदों ने स्पीकर ओम बिरला को ज्ञापन सौंपकर जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश करने की मांग की। वहीं राज्यसभा में भी 50 से अधिक सांसदों ने इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं।
संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने स्पष्ट किया है कि केंद्र सरकार इस मुद्दे पर गंभीर है और लगभग सभी राजनीतिक दलों से सहमति बन चुकी है। उन्होंने यह भी कहा कि जिन दलों के सिर्फ एक-एक सांसद हैं, उनसे भी व्यक्तिगत बातचीत की जा रही है ताकि संसद का निर्णय सर्वसम्मति से लिया जाए।
जस्टिस वर्मा की याचिका: “नकदी मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं”
18 जुलाई को दाखिल अपनी याचिका में जस्टिस वर्मा ने कई गंभीर तर्क रखे। उन्होंने कहा कि उनके आवास के बाहरी हिस्से से जो नकदी मिली है, उससे यह प्रमाणित नहीं होता कि वह नकदी उनकी ही है या उन्होंने ही उसे वहां रखा है। उन्होंने कहा कि जांच समिति ने न तो यह तय किया कि नकदी किसकी है, न ही यह बताया कि वह वहां कैसे पहुंची।
उन्होंने समिति की निष्कर्षों पर सवाल उठाते हुए कहा कि वह मात्र “अनुमानों” और “पूर्व धारणाओं” पर आधारित थे, जिनका कोई ठोस कानूनी आधार नहीं था। इतना ही नहीं, याचिका में उनका नाम भी नहीं दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट की डायरी में इस केस को “XXX बनाम भारत सरकार” के रूप में दर्ज किया गया है — ताकि नाम गोपनीय रखा जा सके।
याचिका में उठाए गए 5 अहम सवाल
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नकदी कब, कैसे और किसने वहां रखी?
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कुल कितनी नकदी बरामद हुई?
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क्या नकदी असली थी?
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परिसर में आग कैसे लगी?
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क्या जस्टिस वर्मा ने 15 मार्च 2025 को “बची हुई नकदी” हटवाने में कोई भूमिका निभाई?
जस्टिस वर्मा के 10 बड़े तर्क जो रिपोर्ट और महाभियोग सिफारिश को चुनौती देते हैं:
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महाभियोग की सिफारिश राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजना संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 का उल्लंघन है।
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इन-हाउस प्रक्रिया केवल प्रशासनिक है, संवैधानिक या वैधानिक नहीं।
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समिति का गठन बिना लिखित शिकायत और सबूतों के किया गया — यह प्रक्रिया की मूल भावना के खिलाफ है।
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22 मार्च 2025 को प्रेस विज्ञप्ति में आरोपों को सार्वजनिक कर मीडिया ट्रायल शुरू करवा दिया गया।
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उन्हें न साक्ष्य देखने का अवसर मिला, न आरोपों पर प्रतिक्रिया देने का।
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जांच के दौरान सीसीटीवी फुटेज तक को सबूत के रूप में शामिल नहीं किया गया।
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समिति ने यह नहीं बताया कि नकदी असली थी या नकली, और आग कैसे लगी।
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रिपोर्ट सिर्फ संभावनाओं पर आधारित थी, ठोस प्रमाण नहीं थे।
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उन्हें अपना पक्ष रखने का अवसर दिए बिना या चेतावनी देकर इस्तीफे का दबाव बनाया गया।
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रिपोर्ट मीडिया में लीक कर दी गई, जिससे उनकी सार्वजनिक छवि को अपूरणीय क्षति पहुंची।